1. झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके । (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा)
When the Gods bow down at the feet of Bhagavan Rishabhdeva divine glow of his nails increases shininess of jewels of their crowns. Mere touch of his feet absolves the beings from sins. He who submits himself at these feet is saved from taking birth again and again. I offer my reverential salutations at the feet of Bhagavan Rishabhadeva, the first Tirthankar, the propagator of religion at the beginning of this era.
य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥2. सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से इन्द्रों के द्वारा तीन लोक के मन को हरने वाले, गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है उन आदिनाथ जिनेन्द्र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करुँगा ।
Wise celestial lords, who have acquired wisdom from all the canons, have eulogized Bhagavan Adinath with Hymns bringing joy to the audience of three realms (heaven, earth and hell) I(Matungacharya, an humble man with little wisdom) shall be steadfast in my endeavour to eulogize that first Tirthankar.
बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ! स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥3. देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि रहित होते हुए भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा करेगा? अर्थात् कोई नहीं ।
O Jina! As an ignorant child takes up an impossible task of grabbing the reflection of moon in water, out of impudence alone, an ignorant man like me trying to eulogize a great soul like you.
वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान्त -काल - पवनोद्धत- नक्र- चक्रं , को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्॥ 4॥4. हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं| अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं ।
O Ocean of virtues! Can even Brihaspati, the guru of gods, with the help of his unlimited wisdom, narrate your virtues transparent and blissful as the moon? (certainly not.) Is it possible for a man to swim across the reptile infested ocean, lashed by gales of deluge? (certainly not.)
सोऽहं तथापि तव भक्ति - वशान्मुनीश! कर्तुं स्तवं विगत - शक्ति - रपि प्रवृत्त:। प्रीत्यात्म - वीर्य - मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम् नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम्॥ 5॥5. हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं ।
O Apostle of apostles ! I am incapable of narrating your infinite virtues. Still, inspired by my devotion for you, I intend to compose a hymn in your praise. It is well known that to protect her fawn, even a doe puts her feet down and faces a lion, forgetting its own fraility. (Similarly, devotion is forcing me to face the great task of composing the hymn without assessing my own capacity.)
अल्प- श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम, त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् । यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चाम्र -चारु -कलिका-निकरैक -हेतु:॥ 6॥6. विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती हैं| बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं ।
O lord ! I am such an ignorant that I am an object of ridicule for the wise. Still, my devotion for you compels me to sing hymns in your praise, as the mango sprouts compel the cuckoo during the spring time to produce its melodious coo.
त्वत्संस्तवेन भव - सन्तति-सन्निबद्धं, पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् । आक्रान्त - लोक - मलि -नील-मशेष-माशु, सूर्यांशु- भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम्॥ 7॥7. आपकी स्तुति से, प्राणियों के, अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की किरणों से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है ।
Just as the bright sun rays remove darkness, the sins accumulated by living beings are wiped out by praying you.
मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद, - मारभ्यते तनु- धियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु, मुक्ता-फल - द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दु:॥ 8॥8. हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को हरेगा| निश्चय से पानी की बूँद कमलिनी के पत्तों पर मोती के समान शोभा को प्राप्त करती हैं।
I compose this panegyric with the belief that, though composed by an ignorant like me, it will certainly please noble people due to your divine influence. Indeed, when on lotus leaves, dew drops gleam like pearls presenting a pleasant sight.
आस्तां तव स्तवन- मस्त-समस्त-दोषं, त्वत्सङ्कथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥ 9॥9. सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर, आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है| जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है ।
The brilliant sun is far away; still, at dawn its soft glow makes the drooping lotus buds bloom. Similarly, O Jina ! Let alone the immeasurable powers of your eulog, mere utterance of your name with devotion destroys the sins of the mundane beings and purifies them.
नात्यद्-भुतं भुवन - भूषण ! भूूत-नाथ! भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त - मभिष्टुवन्त:। तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥ 10॥10. हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है| क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता ।
The brilliant sun is far away; still, at dawn its soft glow makes the drooping lotus buds bloom. Similarly, O Jina ! Let alone the immeasurable powers of your eulog, mere utterance of your name with devotion destroys the sins of the mundane beings and purifies them.
दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष - विलोकनीयं, नान्यत्र - तोष- मुपयाति जनस्य चक्षु:। पीत्वा पय: शशिकर - द्युति - दुग्ध-सिन्धो:, क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्?॥ 11॥11. हे अभिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते| चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं ।
O Jina ! Your divine magnificence is spell-binding. After looking at your divine form nothing else please the eye. Obviously, who would like to taste the saline sea water after drinking fresh water of the divine milk-ocean, pure and soothing like moonlight ?
यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं, निर्मापितस्- त्रि-भुवनैक - ललाम-भूत ! तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां, यत्ते समान- मपरं न हि रूप-मस्ति॥ 12॥12. हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई वे परमाणु पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है ।
O Crown of the three realms ! It appears as if the quiescen ce and harmony imparting ultimate particles became extinct after constituting your body, because I do not witness such out of the world magnificience other than yours.
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि, नि:शेष- निर्जित - जगत्त्रितयोपमानम् । बिम्बं कलङ्क - मलिनं क्व निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पाण्डुपलाश-कल्पम्॥13॥13. हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? जो दिन में पलाश (ढाक) के पत्ते के समान फीका पड़ जाता ।
Analogy of your face with the moon does not appear proper to me. How can your scintillating face, that please the eyes of gods, angels, humans and other beings alike, be compared with the spotted moon that is dull and pale, during the day, as the autumn leaves. Indeed, even the best available analogy for your face is lowly in comparison.
सम्पूर्ण- मण्डल-शशाङ्क - कला-कलाप- शुभ्रा गुणास् - त्रि-भुवनं तव लङ्घयन्ति। ये संश्रितास् - त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं, कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम्॥ 14॥14. पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण, तीनों लोको में व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें इच्छानुसार घुमते हुए कौन रोक सकता हैं? कोई नहीं ।
O Lord of the three realms ! Surpassing the glow of the full moon, your infinite virtues are radiating throughout the universe-even beyond the three realms; the hymns in praise of your virtues can be heard everywhere throughout the universe. Indeed, who can curb the freedom of movement of devotees of the only omnipotent like you ? (certainly no one is capable of).
चित्रं - किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग-नाभिर्- नीतं मनागपि मनो न विकार - मार्गम्। कल्पान्त - काल - मरुता चलिताचलेन, किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित्॥ 15॥15. यदि आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की पवन के द्वारा क्या कभी मेरु का शिखर हिल सका है? नहीं ।
O Passionless ! Divine nymphs have tried their best to allure you through libid gestures, but it is not surprising that your tranquillity has not been disturbed even fractionally. Of course, the tremendous gale of the doomsday, that moves common hillocks, can not disturb even the tip of the great Sumeru mountain.
निर्धूम - वर्ति - रपवर्जित - तैल-पूर:, कृत्स्नं जगत्त्रय - मिदं प्रकटीकरोषि। गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश:॥ 16॥16. हे स्वामिन्! आप धूम तथा बाती से रहित, तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत् प्रकाशक दीपक हैं जिसे पर्वतों को हिला देने वाली वायु भी कभी बुझा नहीं सकती ।
O Lord ! You are an all enlightening divine lamp that needs neither a wick nor oil,and is smokeless, yet enlightens three realms. Even the storm that moves the immovables does not effect it.
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्- जगन्ति। नाम्भोधरोदर - निरुद्ध - महा- प्रभाव:, सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके॥ 17॥17. हे मुनीन्द्र! आप न तो कभी अस्त होते हैं न ही राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं और न आपका महान तेज मेघ से तिरोहित होता है आप एक साथ तीनों लोकों को शीघ्र ही प्रकाशित कर देते हैं अतः आप सूर्य से भी अधिक महिमावन्त हैं ।
O Monk among monks ! Your unabounding glory is greater than that of the sun. The sun rises every day but sets as well,but the orb of your omniscience is ever shining,it never sets. The sun is eclipsed but you are passionless and infinitely virtuous;as such,no mundane passion or desire eclipses the glory of your virtues. The sun slowly rises over parts of the world,but the glow of your omniscience reaches every part of the world at once. The sunrays are obstructed by insignificant clouds, but there is nothing that can obstruct the radiance of your knowledge.
नित्योदयं दलित - मोह - महान्धकारं, गम्यं न राहु - वदनस्य न वारिदानाम्। विभ्राजते तव मुखाब्ज - मनल्पकान्ति, विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशाङ्क-बिम्बम्॥ 18॥18. हमेशा उदित रहने वाला, मोहरुपी अंधकार को नष्ट करने वाला जिसे न तो राहु ग्रस सकता है, न ही मेघ आच्छादित कर सकते हैं, अत्यधिक कान्तिमान, जगत को प्रकाशित करने वाला आपका मुखकमल रुप अपूर्व चन्द्रमण्डल शोभित होता है ।
O Lord ! Your lotus face is a moon par-excellence. The moon shines only at night and that too in a fortnightly cycle, but your face is ever radiant. The moon light penetrates darkness only to a limited extent, your face removes the universal darkness of ignorance and desire. The moon is eclipsed as well as covered by clouds, but there is nothing that can veil your face.
किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेन्दु- दलितेषु तम:सु नाथ! निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके, कार्यं कियज्जल-धरै-र्जल-भार-नमै्र:॥ 19॥19. हे स्वामिन्! जब अंधकार आपके मुख रुपी चन्द्रमा के द्वारा नष्ट हो जाता है तो रात्रि में चन्द्रमा से एवं दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन? पके हुए धान्य के खेतों से शोभायमान धरती तल पर पानी के भार से झुके हुए मेघों से फिर क्या प्रयोजन ।
O Lord of the Universe ! Where is the need of the sun during the day and the moon during the night when your ever radiant face sweeps away the darkness of the world. Indeed, once the crop is ripe what is the need of the thundering rain clouds.
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरि -हरादिषु नायकेषु। तेजः स्फ़ुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काच -शकले किरणाकुलेऽपि॥ 20॥20. अवकाश को प्राप्त ज्ञान जिस प्रकार आप में शोभित होता है वैसा विष्णु महेश आदि देवों में नहीं | कान्तिमान मणियों में, तेज जैसे महत्व को प्राप्त होता है वैसे किरणों से व्याप्त भी काँच के टुकड़े में नहीं होता ।
O Lord ! The pure, incessant and complete knowledge that you have, can not be found in any other deity in this world. Indeed,the lustre and light of priceless gems can hardly be seen in the glass pieces glittering in a beam of light.
मन्ये वरं हरि- हरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति। किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:, कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि॥ 21॥21. हे स्वामिन्| देखे गये विष्णु महादेव ही मैं उत्तम मानता हूँ, जिन्हें देख लेने पर मन आपमें सन्तोष को प्राप्त करता है| किन्तु आपको देखने से क्या लाभ? जिससे कि प्रथ्वी पर कोई दूसरा देव जन्मान्तर में भी चित्त को नहीं हर पाता ।
O Supreme Lord ! It is good that I have seen other mundane deities before seeing you; because the discontent even after seeing them has been removed by the glimpse of your detached and serene expression. Now that I have witnessed the ultimate I can not be satisfied with anything lesser in this of the later lives.
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता। सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥ 22॥22. सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी माँ उत्पन्न नहीं कर सकी| नक्षत्रों को सभी दिशायें धारण करती हैं परन्तु कान्तिमान् किरण समूह से युक्त सूर्य को पूर्व दिशा ही जन्म देती हैं ।
O Unique ! Numerous stars and planets can be seen in all directions but the sun rises only in the East. Similarly innumerable women give birth to sons but an illustrious son like you was born only to one mother; you are unique.
त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस- मादित्य-वर्ण-ममलं तमस: पुरस्तात्। त्वामेव सम्य - गुपलभ्य जयन्ति मृत्युं, नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था:॥ 23॥23. हे मुनीन्द्र! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी निर्मल और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं | वे आपको ही अच्छी तरह से प्राप्त कर म्रत्यु को जीतते हैं | इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा अच्छा रास्ता नहीं है ।
O Sage of sages ! All sages believe you to be the supreme being beyond the darkness,and brilliant as the sun. You are free of the malignance of attachment and aversion and beyond the darkness of ignorance. One gains immortality by perceiving, understanding,and following the path of purity you have shown. There is no other path leading to salvation.
त्वा-मव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं, ब्रह्माणमीश्वर - मनन्त - मनङ्ग - केतुम्। योगीश्वरं विदित - योग-मनेक-मेकं, ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदन्ति सन्त: ॥ 24॥24. सज्जन पुरुष आपको शाश्वत, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, अनेक, एक ज्ञानस्वरुप और अमल कहते हैं ।
O Lord ! Viewing you in different perspectives sages address you as: Amaranthine(in existence),All pervading (in knowledge),Unfathomabel(in perception),Infinite(in virtues),Progenitor(of philosophy),Perpetually blissful(in state),Majestic(in spiritual glory),Eternal(in purity),Serene(with respect to sensuality),Lord of ascetics(in meditation), Preceptor of Yoga(in the yoga philosophy),Multidimensional(in perspective),Unique(in identity),Omniscient(in form),and Pure(free from all vices).
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्, त्वं शङ्करोऽसि भुवन-त्रय- शङ्करत्वात् । धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्, व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि॥ 25॥25. देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से आप ही बुद्ध हैं| तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण आप ही शंकर हैं| हे धीर! मोक्षमार्ग की विधि के करने वाले होने से आप ही ब्रह्मा हैं| और हे स्वामिन्! आप ही स्पष्ट रुप से मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं ।
O Jina ! The wise have eulogized your omniscience, so you are the Buddha. You are the ultimate benefector of all the beings in the universe,so you are Shamkara. You are the ofiginator of the codes of conduct(Right faith,Right knowledge and Right conduct)leading to Moksha,so you are Brahma. You are manifest in thoughts of all the devotees in all the splendour of the ultimate,so you are Vishnu. Hence you are supreme of all.
तुभ्यं नमस् - त्रिभुवनार्ति - हराय नाथ! तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल -भूषणाय। तुभ्यं नमस् - त्रिजगत: परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय॥ 26॥26. हे स्वामिन्! तीनों लोकों के दुःख को हरने वाले आपको नमस्कार हो, प्रथ्वीतल के निर्मल आभुषण स्वरुप आपको नमस्कार हो, तीनों जगत् के परमेश्वर आपको नमस्कार हो और संसार समुन्द्र को सुखा देने वाले आपको नमस्कार हो ।
O Deliverer from all the miseries of the three realms ! I bow to you. O Virtuous adoration of this world ! I bow to you. O Lord paramount of the three realms ! I bow to you. O Terminator of the unending chain of waves of rebirths ! I bow to you.
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषैस्- त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश ! दोषै - रुपात्त - विविधाश्रय-जात-गर्वै:, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि॥ 27॥27. हे मुनीश! अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण समस्त गुणों ने यदि आपका आश्रय लिया हो तो तथा अन्यत्र अनेक आधारों को प्राप्त होने से अहंकार को प्राप्त दोषों ने कभी स्वप्न में भी आपको न देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य?
O Virtuous ! It is not surprising that all the virtues have been drawn and densely fused into yhou, leaving no scope for vices. The vices have creeped in multitude of other beings. Elevated by the false pride,they drift away and do not approach you even in dream.
उच्चै - रशोक- तरु - संश्रितमुन्मयूख - माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्। स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो-वितानं, बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति॥ 28॥28. ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित, उन्नत किरणों वाला, आपका उज्ज्वल रुप जो स्पष्ट रुप से शोभायमान किरणों से युक्त है, अंधकार समूह के नाशक, मेघों के निकट स्थित सूर्य बिम्ब की तरह अत्यन्त शोभित होता है ।
O Tirthankara ! Sitting under the Ashoka tree, the aura of your scintillating body radiating, you look as divinely splendid as the orb of the sun amidst dense clouds,piercing the growing darkness with its rays.
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे, विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम्। बिम्बं वियद्-विलस - दंशुलता-वितानं तुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे: ॥ 29॥29. मणियों की किरण-ज्योति से सुशोभित सिंहासन पर, आपका सुवर्ण कि तरह उज्ज्वल शरीर, उदयाचल के उच्च शिखर पर आकाश में शोभित, किरण रुप लताओं के समूह वाले सूर्य मण्डल की तरह शोभायमान हो रहा है ।
O Tirthankara ! Sitting on throne with multicoloured hue of gems. Your bright golden body looks resplendent and attractive like the rising sun on the peak of the eastern mountain's radiating golden rays under the canopy of the blue sky.
कुन्दावदात - चल - चामर-चारु-शोभं, विभ्राजते तव वपु: कलधौत -कान्तम्। उद्यच्छशाङ्क- शुचिनिर्झर - वारि -धार- मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥ 30॥30. कुन्द के पुष्प के समान धवल चँवरों के द्वारा सुन्दर है शोभा जिसकी, ऐसा आपका स्वर्ण के समान सुन्दर शरीर, सुमेरुपर्वत, जिस पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल झरने के जल की धारा बह रही है, के स्वर्ण निर्मित ऊँचे तट की तरह शोभायमान हो रहा है ।
O Tirthankara ! The snow white fans of loose fibres (giant whisks) swinging on both sides of your golden body appear like streams of water,pure and glittering as the rising moon,flowing down th sides of the peakof the golden mountain,Sumeru.
छत्र-त्रयं तव विभाति शशाङ्क- कान्त- मुच्चै: स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम्। मुक्ता - फल - प्रकर - जाल-विवृद्ध-शोभं, प्रख्यापयत्-त्रिजगत: परमेश्वरत्वम्॥ 31॥31. चन्द्रमा के समान सुन्दर, सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाले, तथा मोतियों के समूहों से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले, आपके ऊपर स्थित तीन छत्र, मानो आपके तीन लोक के स्वामित्व को प्रकट करते हुए शोभित हो रहे हैं ।
O Tirthankara ! A three tier canopy adorns the space over your head. It has the soft white glow of the moon and is decorated with pearl frills. This canopy has screened the scorching sun rays. Indeed,this three tier canopy symbolizes your paramountcy over the three realms.
गम्भीर - तार - रव-पूरित-दिग्विभागस्- त्रैलोक्य - लोक -शुभ - सङ्गम -भूति-दक्ष:। सद्धर्म -राज - जय - घोषण - घोषक: सन्, खे दुन्दुभि-र्ध्वनति ते यशस: प्रवादी॥ 32॥32.गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं को गुञ्जायमान करने वाला, तीन लोक के जीवों को शुभ विभूति प्राप्त कराने में समर्थ और समीचीन जैन धर्म के स्वामी की जय घोषणा करने वाला दुन्दुभि वाद्य आपके यश का गान करता हुआ आकाश में शब्द करता है ।
The deep resonant drum beats fill space in all directions as if felicitating your serene presence and giving a call to all the beings of the three realms to join the pious path shown by you. All space is reverberating with this announcement of victory of the true religion.
मन्दार - सुन्दर - नमेरु - सुपारिजात- सन्तानकादि - कुसुमोत्कर - वृष्टि-रुद्धा। गन्धोद - बिन्दु- शुभ - मन्द - मरुत्प्रपाता, दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा॥ 33॥33. सुगंधित जल बिन्दुओं और मन्द सुगन्धित वायु के साथ गिरने वाले श्रेष्ठ मनोहर मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा आपके वचनों की पंक्तियों की तरह आकाश से होती है ।
O Tirthankara ! The divine spray of perfumes and shower of fragrant flowers,like Mandar,Sundar,Nameru,Parijata,etc.,float toward you with the drift of mild breeze. This enchanting scene creates and impression as if the pious words uttered by you have turned into flowers and are floating toward the earthlings.
शुम्भत्-प्रभा- वलय-भूरि-विभा-विभोस्ते, लोक - त्रये - द्युतिमतां द्युति-माक्षिपन्ती। प्रोद्यद्- दिवाकर-निरन्तर - भूरि -संख्या, दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोमसौम्याम्॥34॥34. हे प्रभो! तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की प्रभा को तिरस्कृत करती हुई आपके मनोहर भामण्डल की विशाल कान्ति एक साथ उगते हुए अनेक सूर्यों की कान्ति से युक्त होकर भी चन्द्रमा से शोभित रात्रि को भी जीत रही है ।
O Tirthankara ! The splendorous halo around you is more brilliant than any other luminous object in the universe. It dispels darkness of the night and is more dazzling than many suns put together; but still it is as cool and soothing as the bright full moon.
स्वर्गापवर्ग - गम - मार्ग - विमार्गणेष्ट:, सद्धर्म- तत्त्व - कथनैक - पटुस्-त्रिलोक्या:। दिव्य-ध्वनि-र्भवति ते विशदार्थ-सर्व- भाषास्वभाव-परिणाम-गुणै: प्रयोज्य:॥ 35॥35. आपकी दिव्यध्वनि स्वर्ग और मोक्षमार्ग की खोज में साधक, तीन लोक के जीवों को समीचीन धर्म का कथन करने में समर्थ, स्पष्ट अर्थ वाली, समस्त भाषाओं में परिवर्तित करने वाले स्वाभाविक गुण से सहित होती है ।
O Tirthankara ! Your divine voice (discourse) is potent enough to show the path of liberation to all beings. It has the clarity to reveal the mystery of matter and its trasformation. Profound but candid,it has the astounding capacity of transforming into the language understood by each being of the world.
उन्निद्र - हेम - नव - पङ्कज - पुञ्ज-कान्ती, पर्युल्-लसन्-नख-मयूख-शिखाभिरामौ। पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्त:, पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति॥ 36॥36. पुष्पित नव स्वर्ण कमलों के समान शोभायमान नखों की किरण प्रभा से सुन्दर आपके चरण जहाँ पड़ते हैं वहाँ देव गण स्वर्ण कमल रच देते हैं ।
O Jina ! Your feet are resplendent like fresh golden lotuses. Their nails have a comely glow. Wherever you put your feet the gods create divine golden lotuses .
इत्थं यथा तव विभूति- रभूज् - जिनेन्द्र ! धर्मोपदेशन - विधौ न तथा परस्य। यादृक् - प्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा, तादृक्-कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि॥ 37॥37. हे जिनेन्द्र! इस प्रकार धर्मोपदेश के कार्य में जैसा आपका ऐश्वर्य था वैसा अन्य किसी का नही हुआ| अंधकार को नष्ट करने वाली जैसी प्रभा सूर्य की होती है वैसी अन्य प्रकाशमान भी ग्रहों की कैसे हो सकती है?
O lord of ascetics ! The height of eloquence,lucidity and eruditeness evident in your discourse is not seen anywhere else. Indeed,the darkness dissipating dazzle of the sun can never be seen in the twinkling stars and planets.
श्च्यो-तन्-मदाविल-विलोल-कपोल-मूल, मत्त- भ्रमद्- भ्रमर - नाद - विवृद्ध-कोपम्। ऐरावताभमिभ - मुद्धत - मापतन्तं दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्॥ 38॥38. आपके आश्रित मनुष्यों को, झरते हुए मद जल से जिसके गण्डस्थल मलीन, कलुषित तथा चंचल हो रहे है और उन पर उन्मत्त होकर मंडराते हुए काले रंग के भौरे अपने गुजंन से क्रोध बढा़ रहे हों ऐसे ऐरावत की तरह उद्दण्ड, सामने आते हुए हाथी को देखकर भी भय नहीं होता ।
O Jina ! The devotees who have submitted to you are not scared even of a mad mammoth with dripping humor and being incessantly goaded by humming bees. (They are always and everywhere fearless as the quietitude of their deep meditation pacifies even the most oppressive of the beings.
भिन्नेभ - कुम्भ- गल - दुज्ज्वल-शोणिताक्त, मुक्ता - फल- प्रकरभूषित - भूमि - भाग:। बद्ध - क्रम: क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि, नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते॥ 39॥39. सिंह, जिसने हाथी का गण्डस्थल विदीर्ण कर, गिरते हुए उज्ज्वल तथा रक्तमिश्रित गजमुक्ताओं से पृथ्वी तल को विभूषित कर दिया है तथा जो छलांग मारने के लिये तैयार है वह भी अपने पैरों के पास आये हुए ऐसे पुरुष पर आक्रमण नहीं करता जिसने आपके चरण युगल रुप पर्वत का आश्रय ले रखा है ।
O Jina ! A ferocious lion tears open the temples of elephant and scatters around white bone-pearls made crimson with blood. Even such angry and roaring lion,ready to leap at its prey, gets pacified and does not attack a devotee who has taken shelter at your secure feet. (In other words,your devotee is free of the fear of ferocious lions.)
कल्पान्त - काल - पवनोद्धत - वह्नि -कल्पं, दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल - मुत्स्फुलिङ्गम्। विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख - मापतन्तं, त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम्॥ 40॥40. आपके नाम यशोगानरुपी जल, प्रलयकाल की वायु से उद्धत, प्रचण्ड अग्नि के समान प्रज्वलित, उज्ज्वल चिनगारियों से युक्त, संसार को भक्षण करने की इच्छा रखने वाले की तरह सामने आती हुई वन की अग्नि को पूर्ण रुप से बुझा देता है ।
O Jina ! Even the all consuming forest conflagaration,as if kindled by the doomsday tempest and having incandescant sparking flames,is extinguished in no time by the quenching stream of your name laudition. (That is,your devotee has no fear of fire.)
रक्तेक्षणं समद - कोकिल - कण्ठ-नीलम्, क्रोधोद्धतं फणिन - मुत्फण - मापतन्तम्। आक्रामति क्रम - युगेण निरस्त - शङ्कस्- त्वन्नाम- नागदमनी हृदि यस्य पुंस:॥ 41॥41. जिस पुरुष के ह्रदय में नामरुपी-नागदौन नामक औषध मौजूद है, वह पुरुष लाल लाल आँखो वाले, मदयुक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले, क्रोध से उद्धत और ऊपर को फण उठाये हुए, सामने आते हुए सर्प को निश्शंक होकर दोनों पैरो से लाँघ जाता है ।
O Benevolent ! A devotee who has absorbed the anti-toxin of your pious name crosses fearlessly over an extremely venomous and hissing serpent hat as blood red eyes,pitch black body,obnoxious appearence and raised hood. (That is, your devotee has no fear of snakes.)
वल्गत् - तुरङ्ग - गज - गर्जित - भीमनाद- माजौ बलं बलवता - मपि - भूपतीनाम्। उद्यद् - दिवाकर - मयूख - शिखापविद्धं त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति॥ 42॥42. आपके यशोगान से युद्धक्षेत्र में उछलते हुए घोडे़ और हाथियों की गर्जना से उत्पन भयंकर कोलाहल से युक्त पराक्रमी राजाओं की भी सेना, उगते हुए सूर्य किरणों की शिखा से वेधे गये अंधकार की तरह शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाती है ।
O Conqueror of vices ! As darkness recedes with the rising of the sun,the armies of formidable kings,creating tumultuous uproar of whinnying horses and trumpeting elephants,retreat when your pious name is chanted. (In other words,your devotee is free of the fear of enemies.)
कुन्ताग्र-भिन्न - गज - शोणित - वारिवाह, वेगावतार - तरणातुर - योध - भीमे। युद्धे जयं विजित - दुर्जय - जेय - पक्षास्- त्वत्पाद-पङ्कज-वनाश्रयिणो लभन्ते॥ 43॥43. हे भगवन् आपके चरण कमलरुप वन का सहारा लेने वाले पुरुष, भालों की नोकों से छेद गये हाथियों के रक्त रुप जल प्रवाह में पडे़ हुए, तथा उसे तैरने के लिये आतुर हुए योद्धाओं से भयानक युद्ध में, दुर्जय शत्रु पक्ष को भी जीत लेते हैं ।
O Vanquisher of the passion ! In the fierce battle,where brave warriors are eager to plod over the streams of blood gushing out of the bodies of elephants pierced by sharp spears,the devotee having sought protection of the garden of your lotus feet embraces victory ultimately. (in other words,your devotee is always victorious in the end.)
अम्भोनिधौ क्षुभित - भीषण - नक्र - चक्र- पाठीन - पीठ-भय-दोल्वण - वाडवाग्नौ। रङ्गत्तरङ्ग -शिखर- स्थित- यान - पात्रास्- त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद्-व्रजन्ति ॥ 44॥44. क्षोभ को प्राप्त भयंकर मगरमच्छों के समूह और मछलियों के द्वारा भयभीत करने वाले दावानल से युक्त समुद्र में विकराल लहरों के शिखर पर स्थित है जहाज जिनका, ऐसे मनुष्य, आपके स्मरण मात्र से भय छोड़कर पार हो जाते हैं ।
O Equanimous ! Abroad a ship caught at the crest of giant waves and surrounded by attacking alligators,giant oceanic creatures,and marine fire,with the help of your name chanting,the devotee surmount such horrors and cross the ocean. (That is,your devotees are free of the fear of water.)
उद्भूत - भीषण - जलोदर - भार- भुग्ना:, शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशा:। त्वत्पाद-पङ्कज-रजो - मृत - दिग्ध - देहा, मर्त्या भवन्ति मकर-ध्वज-तुल्यरूपा:॥ 45॥45. उत्पन्न हुए भीषण जलोदर रोग के भार से झुके हुए, शोभनीय अवस्था को प्राप्त और नहीं रही है जीवन की आशा जिनके, ऐसे मनुष्य आपके चरण कमलों की रज रुप अम्रत से लिप्त शरीर होते हुए कामदेव के समान रुप वाले हो जाते हैं ।
O Omniscient ! An extremely sick person, disfigured due to advanced dropsy and having lost all hopes of recovery and survival, when rubs the nectar-like dust particles taken from your lotus feet, fully recovers and becomes handsome as Adonis.
आपाद - कण्ठमुरु - शृङ्खल - वेष्टिताङ्गा, गाढं-बृहन्-निगड-कोटि निघृष्ट - जङ्घा:। त्वन्-नाम-मन्त्र- मनिशं मनुजा: स्मरन्त:, सद्य: स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति॥ 46॥46. जिनका शरीर पैर से लेकर कण्ठ पर्यन्त बडी़-बडी़ सांकलों से जकडा़ हुआ है और विकट सघन बेड़ियों से जिनकी जंघायें अत्यन्त छिल गईं हैं ऐसे मनुष्य निरन्तर आपके नाममंत्र को स्मरण करते हुए शीघ्र ही बन्धन मुक्त हो जाते है ।
O Liberated soul ! Persons put in prison, tied from head to toe in heavy chains, whose thighs have been bruised by the rough edges of the chain-links, get unshackled and freed from bondage by chanting your name.
मत्त-द्विपेन्द्र- मृग- राज - दवानलाहि- संग्राम-वारिधि-महोदर - बन्ध -नोत्थम्। तस्याशु नाश - मुपयाति भयं भियेव, यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमानधीते॥ 47॥47. जो बुद्धिमान मनुष्य आपके इस स्तवन को पढ़ता है उसका मत्त हाथी, सिंह, दवानल, युद्ध, समुद्र जलोदर रोग और बन्धन आदि से उत्पन्न भय मानो डरकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है ।
O jina ! The wise who recites this panegyric with devotion is always free of fears of mad elephants, ferocious lions, forest fire, poisonous snakes ,tempestuous sea, fatal diseases ,and bondage. In fact, fear itself is afraid of him.
स्तोत्र - स्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धाम्, भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्। धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं, तं मानतुङ्ग-मवशा-समुपैति लक्ष्मी:॥ 48॥48. हे जिनेन्द्र देव! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक (ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि) गुणों से रची गई नाना अक्षर रुप, रंग बिरंगे फूलों से युक्त आपकी स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है उस उन्नत सम्मान वाले पुरुष को अथवा आचार्य मानतुंग को स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य प्राप्त होती है ।
O Jina ! With devotion I have made up this string (panegyric) of your virtues. I have decorated it with charming and multicoloured (words) flowers (sentiments). The devotee who always wears it in the neck (memories and chants) attracts the goddess of success (attracts highest honour, the goal of liberation).
श्री आदिनाथाय नमः भक्तामर - प्रणत - मौलि - मणि -प्रभाणा- मुद्योतकं दलित - पाप - तमो - वितानम्। सम्यक् -प्रणम्य जिन - पाद - युगं युगादा- वालम्बनं भव - जले पततां जनानाम्।। 1॥ य: संस्तुत: सकल - वाङ् मय - तत्त्व-बोधा- दुद्भूत-बुद्धि - पटुभि: सुर - लोक - नाथै:। स्तोत्रैर्जगत्- त्रितय - चित्त - हरैरुदारै:, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥ 2॥ >> भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी) || आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार . || कविश्री पं. हेमराज << >> भक्तामर स्तोत्र ( संस्कृत )-हिन्दी अर्थ अनुवाद सहित-with Hindi arth & English meaning- क्लिक करें..<< https://forum.jinswara.com/uploads/default/original/2X/8/86ed1ca257da711804c348a294d65c8978c0634a.mp3 बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित - पाद - पीठ! स्तोतुं समुद्यत - मतिर्विगत - त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब- मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ॥ 3॥ वक्तुं गुणान्गुण -समुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, कस्ते क्षम: सुर - गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । कल्पान<>
कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् । संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु - पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् । तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥ मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत। कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य । बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो
||लघुशांतिधारा || ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! श्री वीतरागाय नमः ! ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते, श्री पार्श्वतीर्थंकराय, द्वादश-गण-परिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय,सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, त्रैलोकमाही व्यप्ताय, अनंत-संसार-चक्र-परिमर्दनाय, अनंत दर्शनाय, अनंत ज्ञानाय, अनंतवीर्याय, अनंत सुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रिलोकवशंकराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्राह्मने, धरणेन्द्र फणामंडल मन्डिताय, ऋषि- आर्यिका,श्रावक-श्राविका-प्रमुख-चतुर्संघ-उपसर्ग विनाशनाय, घाती कर्म विनाशनाय, अघातीकर्म विनाशनाय, अप्वायाम(छिंद छिन्दे भिंद-भिंदे), मृत्यु (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), अतिकामम (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), रतिकामम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), क्रोधं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), आग्निभयम (छिंद-छिन्देभिंद-भिंदे), सर्व शत्रु भयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वोप्सर्गम(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व विघ्नं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व भयं(छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्व राजभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे), सर्वचोरभयं (छिंद-छिन्दे भिंद-भिंदे
प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनों में हर्ष प्रभो। करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥ 1॥ यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥ 2॥ सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो। वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥ 3॥ जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ। वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥ 4॥ एकेन्द्रिय आदिक जीवों की यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह,निष्फल हो दुष्कृत्य विभो॥ 5॥ मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से। विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥ 6॥ चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त। अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥ 7॥ सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया। व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किया॥ 8॥ कभी वासना की सरिता का, गहन सलिल मुझ पर छाया। पी पीकर विषयों की मदिरा मुझ में पागलपन आया॥ 9॥ मैंने छली और मायावी, हो असत्य
यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद्दीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिल-ज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद्भुतं तद्भवै:, सङ्गीतस्तुतिमङ्गलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव:॥१॥ श्रीमन्नतामर-किरीटमणिप्रभाभि-, रालीढपादयुग- दुर्द्धरकर्मदूर, श्रीनाभिनन्दन ! जिनाजित ! शम्भवाख्य, त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रय प्रचल चामर- वीज्यमान, देवाभिनन्दनमुने! सुमते! जिनेन्द्र! पद्मप्रभा रुणमणि-द्युतिभासुराङ्ग त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥३॥ अर्हन्! सुपाश्र्व! कदली दलवर्णगात्र, प्रालेयतार गिरि मौक्तिक वर्णगौर ! चन्द्रप्रभ! स्फटिक पाण्डुर पुष्पदन्त! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥४॥ सन्तप्त काञ्चनरुचे जिन! शीतलाख्य! श्रेयान विनष्ट दुरिताष्टकलङ्क पङ्क बन्धूक बन्धुररुचे! जिन! वासुपूज्य! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥५॥ उद्दण्ड दर्पक-रिपो विमला मलाङ्ग! स्थेमन्ननन्त-जिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्म कल्मष विवर्जित-धर्मनाथ! त्वद्ध्यानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥६॥ देवामरी-कुसुम सन्निभ-शान्तिनाथ! कुन्थो! दयागुण विभूषण भूषिताङ्ग। देवाधिदेव!भगवन्नरतीर्थ नाथ, त्वद